सरल शब्दों में भारतीय ज्योतिष शास्त्र को निम्न संस्कृत लोक से परिभाषित किया जा सकता है।
*ज्योतिषां सुर्यादि ग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्*
उपरोक्त लोक का अर्थ है नवग्रहों एवं नक्षत्रों के विषय में विवरण देने वाला शास्त्र ज्योतिष शास्त्र कहलाता है। पृथ्वी, सूर्य इत्यादि ग्रह भी सौरमण्डल में परिक्रमा करते है। पृथ्वी पर सूर्य और अन्य तारों की किरणें आती है। उनका प्रभाव मानव जीवन को स्पष्ट रूप से प्रभावित करता है। इन प्रभावों का अध्ययन ज्योतिष शास्त्र में किया जाता है।
ग्रहों की स्थिति के सूक्ष्म अध्ययन से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के शुभ अशुभ और महत्वपूर्ण घटनाओं के विषय में समझा जा सकता है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र की संरचना में समय के साथ एवं मानव के क्रमिक विकास द्वारा अनेक बड़े परिवर्तन आ चुके है। अब ज्योतिष शास्त्र में सम्पूर्ण खगोल शास्त्र, परिकल्पनांए एवं फलित शास्त्र का अध्ययन होता है। इतने विराट रूप में ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन, विवेचन एवं उपयोगिता अनेक वर्तमान संदर्भों में महत्वपूर्ण है ।
*कर्म :-
श्रीमद्भागवदगीता में आत्मा का उल्लेख है। आत्मा अजर, अमर होती है। जिस प्रकार वस्त्र पुराने होने पर नये वस्त्र धारण कर लेते है, उसी प्रकार शरीर के वृद्ध और कमजोर होने पर आत्मा नया शरीर धारण कर लेती है। इस प्रकार सृष्टि के आदि से अंत तक यह प्रक्रिया चलती रहती है। हर जन्म में मनुष्य कर्म करता है। वेद इन्हीं कर्मों को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते है। आत्मा द्वारा नया जन्म लेने पर शरीर तो पीछे छुट जाता है परन्तु मनुष्य द्वारा किये गये कर्म उसके साथ-साथ जल की धारा के समान प्रवाहित होते रहते है। जो भी कर्म मनुष्य अपने जीवन में करता है। वह उसके वर्तमान एवं भविय को अवश्य प्रभावित करते है।
जन्म पत्रिका जन्म के समय ग्रह, नक्षत्र योग, तिथि इत्यादि के आधार पर बनायी जाती है। यह जन्म पत्रिका उस मनुष्य के जीवन की दिशा एवं रुप-रेखा बताती है। इस पत्रिका के आधार पर मनुष्य का रुप, चाल-चलन, व्यवहार, कर्म, सुख-दुःख इत्यादि का ज्ञान हो जाता है। जन्म पत्रिका में दोष का भी पता चलता है।
क्या जन्म समय, जन्म दिनांक व जन्म स्थान के आधार पर बनाई गयी जन्म पत्रिका व्यक्ति के पूरे जीवन काल का विवरण दे देती है?
इसमें कुछ शुभ व कुछ अशुभ परिस्थितियां बनती है। जिस मनुष्य का जन्म हो रहा है या होने वाला है उसे तो इस जीवन काल में कार्य करना है किन्तु उसकी जन्म पत्रिका सब-कुछ पहले ही निश्चित कर देती है। इसका क्या कारण हो सकता है?
भारतीय दर्शन शास्त्र इस सवाल का जवाब देता है। भारतीय दर्शन शास्त्र के अनुसार आत्मा अजर-अमर होती है। मनुष्य का केवल शरीर मरता है परन्तु आत्मा सदैव जीवित रहती है। इस आत्मा का मनुष्य के विभिन्न जन्मों में एक शरीर से दूसरे शरीर में रूपान्तरण होता है। आत्मा अपने साथ कुछ नहीं ले जाती किन्तु उस मनुष्य के द्वारा किये गये कर्म उसके साथ जाते है। अर्थात आत्मा की तरह मनुष्य द्वारा किया गया शुभ-अशुभ कार्य का प्रभाव उसे भोगना पड़ता है। जिस मनुष्य ने इस जन्म में शुभ कार्य किये हो उसके अगले जन्म में उसे शुभ योनि, शुभ परिवार व कुल, शुभ योग इत्यादि में जन्म होता है। इसके विपरित कुकर्म व दुषकर्म करने वाले लोग अपने अगले जन्म में अशुभ योनी, नीच कुल व दुःख विपदाओं का सामना करते है।
इन कर्मों को भी तीन विस्तृत भागों में बांटा गया है। जो अग्रलिखित हैं ।
(अ) संचित कर्म
संचित का अर्थ होता है जमा। मनुष्य द्वारा किये गए सारे कर्म का जमा होना संचय कहलाता है। जो कर्म मनुष्य द्वारा किये गये हैं वे सभी जमा होते जाते हैं जिसका उसे क्रमशः शुभ-अशुभ फल प्राप्त होता है। इसमें कुछ फल उसे उसी जीवनकाल में प्राप्त हो जाते है।
(ब) प्रारब्ध कर्म
मनुष्य द्वारा पूर्व जन्म के कर्मों का फल उसके भाग्य का निर्माण करता या बिगाड़ता है। उसे प्राख्ध कहते है।
दो मनुष्यों का एक दिन एक समय व एक ही शहर में जन्म होने से उनका प्रारब्धय तब भी अलग-अलग होता है। इसमें यदि एक का जन्म कुलीन परिवार में हुआ है तो उसे सारे सुख और ऐश्वर्य उसी क्षण प्राप्त हो गये व आगे प्राप्त होते रहेगें। इसी प्रकार यदि दूसरों का जन्म किसी नीच कुल में हो तो उसका प्रारब्ध या प्रारंभ बिंदु ही अशुभ है। अशुभ वातावरण, अशुभ संस्कार व नीच कुल उसे उठने नहीं देगा चाहे उसकी जन्म पत्रिका कितनी ही सशक्त क्यों न हो। उसे अपने पराक्रम व बुद्धि के बल पर ही अपने कर्म को श्रेष्ठ बना पाता है।
चूंकि दोनों मनुष्यों की जन्म पत्रिका एक जैसी बनेगी किन्तु उसके बाद भी प्रारब्ध दोनों का अलग-अलग है। दोनों मनुष्य शुभत्व या अशुभत्व को समान प्रकार से प्राप्त करेगें किन्तु उसका अंश व असर अलग-अलग प्रकार से होगा।
(स) क्रियमाण कर्म
वर्तमान के जीवन में किये जाने वाले क्रियमाण कर्म कहलाते है। वर्तमान में किये गये कर्म मनुष्य का संचित कर्म बनाते है। जिसमें कुछ का असर उसे तात्कालिक रूप में प्राप्त भी होता रहता है। इनमें से कुछ संचित कर्म बनते मनु य का प्राख्ध बनाते है।
इस नियम को ज्योतिष शास्त्र में समझने से बहुत बड़ी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। मान लीजिए, किसी मनुष्य का प्रारब्ध कर्म अधिकतर अशुभ या, तो उसे अशुभ परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। परन्तु यदि वह इस अशुभ परिस्थिति में अपने कर्मों का प्रायश्चित् करता है तो उसे कुछ हद तक शांति मिलेगी। उसका प्रारब्ध नहीं होगा किन्तु उसी प्रारब्ध का अशुभ प्रभाव कुछ कम किया जा सकता है।
*वेद परिचय व वैदिक ज्योतिष*
वेद मानव सभ्यता के सबसे प्राचीन ग्रंथ माने गये हैं। ये आर्य ग्रंथ हैं। वेद ज्ञान धारा है। जिसे जीवन दर्शन माना गया हैं। वेदों को प्राणीमात्र के कल्याण के लिए प्रचारित किया गया। यह ज्ञान सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ही विद्यमान हैं। ऋषि मुनियों को यह ज्ञान परम पिता परमेश्वर से प्राप्त हुआ और उन्होंने इसका संकलन किया। इसलिए यह माना जाता है कि वेदों को किसी ने नहीं लिखा बल्कि ये दैवीय ज्ञान है जो प्रकट हुआ। वेदों का ज्ञान शाश्वत माना गया है। वेद काल (समय) से परे हैं। इन ग्रंथों में जीवन के हर क्षेत्र का ज्ञान है। मनुष्य के लिए उचित अनुचित, चिकित्सा, औषधियाँ, शस्त्रकला, ललित कलाएँ, ज्योतिष, स्थापत्य सहित दैनिक जीवन से संबंधित सारी गतिविधियों की शास्त्रोक जानकारी वेदों में है। प्राचीन काल से आज तक वेद पाठी ब्राह्मणों की परम्परा हैं। वेदों का अध्ययन करने वाला वेदज्ञ कहलाता है।
*ज्योतिष वेदानां चक्षु*
अर्थात ज्योतिष वेदो के नेत्र है। ज्योतिष शास्त्र में भविष्य के बारे में फल कथन व उस अनुसार कार्य करने की एक महत्वपूर्ण विद्या है।
वैदिक काल में सामाजिक जीवन में धर्म का बहुत महत्व था, धर्मपालन को अपार्जन से महत्वपूर्ण माना जाता था।
निरंतर यज्ञ कार्य और कर्मकांड होते रहते थे। इन्हीं कार्यों के लिए वैदिक काल से मुहुर्त, शुभाशुभ इत्यादि का ज्ञान विकसित हुआ। वैदिक काल में विकसित ज्योतिष शास्त्र को ही वैदिक ज्योतिष अथवा वेदांग ज्योतिष कहा जाता है।
वेदों का ज्ञान रखने वाले विद्वान अपने ज्ञान का उपयोग जन कल्याण में करते हैं। वेद चार हैं और इनके नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद हैं। इन चारों वेदों के उपवेद क्रमशः आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद और स्थापत्य वेद हैं। वेदों के छ उपांग शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष है। पुराणों को पंचम वेद भी कहा जाता है। ज्योतिष का ज्ञान, पद्धति व आयाम हर वेद व पुराण में मिलते हैं।
(1) ऋग्वेद
यह ग्रंथ चारों वेदों में सबसे प्राचीन है। ज्योतिष का पहला प्रयोग भी इसी वेद के सूत्रों में मिलता है। इसका रचना काल लगभग 4000 वर्ष ईसा पूर्व है। ऋग्वेद में लोकों का संग्रह है। विभिन्न देवताओं की आराधना के मंत्र लोक के रूप में लिखे गये है। उस काल में देवताओं का आह्वान केवल मंत्रों से किया जाता था। प्रत्येक मंत्र किसी छन्द में निवद्ध होता है। वेदों की सभी रचनाएं वैदिक संस्कृत में की गई है। वैदिक संस्कृत में छदों को शब्दों के साथ उनके आरोह-अवरोह तथा अन्य ध्वनियों के संकेत भी दिये होते हैं। इस तरीके से लिखे गये मंत्रों के वाचन में ध्वनि के आरोह-अवरोह का सामन्जस्य वास-प्रश्वास से होता है। इस प्रकार सतत् पाठ करने पर भी व्यक्ति की सांस की गति सामान्य रहती है। ऋग्वेद के मंत्रों को कुछ मण्ड़लों या भागों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक मण्डल में सूक्त होते हैं। सूक्त उत्न विशिष्ट मंत्रों को कहा गया है जिनके द्वारा देवताओं का आह्वान किया जाता है। प्रत्येक देवता के लिए अलग सूक्त है। हर सूक्त की रचना किसी ऋषि ने की है। सूक्त जिस छन्द में होता वहीं छन्द उसका आवरण होता है। सूक्त का पाठ निर्धारित रीति से करने पर यह आवरण दूर होता है। और व्यक्ति की चेतना को देवता का साक्षात्कार होता है। इन सूक्तों को ऋचा भी कहा जाता है। ऋग्वेद के मुख्य ऋषि अगस्त्य, गौतम, कश्यप और अंगिरस है। ऋग्वेद के प्रमुख देवता अग्नि, अदिति, आदित्य, इन्द्र, ऊष, सोम, रुद्र, पूषा, वरुण, वायु आदि है।
ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद है। आयुर्वेद के रचयिता भगवान धन्वन्तरि हैं। आयुर्वेद एक सम्पूर्ण चिकित्सा शास्त्र है। इसमें जडी-बूटियों और औषधिय वनस्पतियों का विस्तृत उल्लेख है। रोग के अनुसार औषधि और उसकी मात्रा की जानकारी इसमें दी गई है। रोग के अनुसार पथ्य-अपव्य भी बताया गया है। मनुष्य की दिनचर्या भी इस प्रकार निर्धारित की गई है कि वह सदा स्वस्थ रहे। वर्ष के सभी महीनों में कैसा आहार उचित है और कौन सा वर्जित है इसे बहुत विस्तारपूर्वक समझाया गया है। आयुर्वेद में रोग निवारण का ज्ञान तो है ही परन्तु इस बात पर विशेष ध्यान दिया गया है कि मनुष्य का आहार-विहार इस प्रकार हो कि उससे रोग सदा दूर रहें। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में शल्य क्रिया का उल्लेख भी है। जो आचार्य आयुर्वेद का वृहत् अध्ययन करते है उन्हें वैद्य कहा जाता है। वर्तमान समय में सम्पूर्ण विश्व का झुकाव आयुर्वेदिक औषधियों के प्रति चढ़ रहा है। आयुर्वेद का ज्ञान धन्वन्तरि से कुछ ऋषियों और आचार्यों ने ग्रहण किया। इनमें चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट, शांर्गधर प्रमुख है। इसके अलावा अश्विनि कुमार देवताओं के वैद्य कहलाये। आयुर्वेद के मुख्य ग्रंथ माधवनिदान, भावप्रकाश निघंटु, सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, शांर्गधर संहिता, वाग्भट्ट संहिता आदि है।
ऋग्वेद में ज्योतिष के महत्वपूर्ण तथ्यों का विवरण मिलता है। इसमें दिनों का प्रभाव, सूर्य के दो अयन-उत्तरायण एवं दक्षिणायण का मनुष्य पर प्रभाव एवं विभिन्न ऋतुओं में जन्म लेने वाले जातक का फल निर्धारण किया गया है। गणित की सुक्ष्म गणनाएँ भी इस वेद में सम्मिलित है। विभिन्न मास एवं तिथि की गणना व उनका प्रभाव भी इस वेद के अन्तर्गत आता है। इस वेद में छत्तिस कारिकायें हैं। जिनका संबंध ज्योतिष से है। इसमें नक्षत्र, नक्षत्र का (वैदिक) नाम, नक्षत्र की खोज, नऋत्र से फलादेश, इत्यादि भी बताया गया है।
(2) यजुर्वेद
यजुर्वेद में विभिन्न प्रकार के यज्ञों का उल्लेख है। यह एक धार्मिक संस्कार है किसी विशेष परिणाम के लिए यज्ञ का आयोजन किया जाता है। यज्ञ, हवन और कर्मकाण्ड के सारे मंत्र यजुर्वेद में है। हवन यज्ञ का ही एक अंश है जिसमें अग्नि में आहूतियाँ दी जाती है। विभिन्न लक्ष्यों के लिए अलग-अलग यज्ञ होते है। प्राचीन काल के ग्रंथों मे अश्वमेघ यज्ञ का उल्लेख अनेक स्थानों पर है। किसी भी राजा के चक्रवती सम्राट बनने के लिए उसका अश्वमेघ यज्ञ करना आवश्यक होता था। रामायण में श्रीराम के द्वारा किये गये अश्वमेघ यज्ञ का वर्णन है। इसी प्रकार पुत्र प्राप्ति की कामना से किये गये यज्ञ को पुत्र कामेष्टि यज्ञ कहा जाता है। वर्षा के लिए भी यज्ञ किये जाते हैं। निकाम भाव से जन कल्याण के यज्ञ भी किये जाते हैं। प्राचीन काल में किसी सैन्य अभियान पर जाने से पहले राजा विजय प्राप्ति के लिए यज्ञ करवाता था। यज्ञ कर्म के लिए ब्राह्मण होते थे।
इन ब्राह्मणों को आचार्य कहा जाता था। प्रत्येक यज्ञ का विधि-विधान अलग होता था। यज्ञवेदी या हवनकुण्ड की आकृति भी प्रत्येक यज्ञ के अनुसार होती थी। इस प्रकार यजुर्वेद के मंत्रों से देवताओं का आह्वान विशेष कार्यों की सिद्धी के लिए होता था। यजुर्वेद के प्रमुख ऋषिगण वशिष्ठ, अत्रि, विश्वमित्र, जमदग्नि, याज्ञवल्क्य और दालव्य है। यजुर्वेद के प्रमुख देवता सविता, वरूण, वायु, अग्नि, चन्द्र, आप (जल) आदि हैं। यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद है। इसे महर्षि भंगु ने रचा है। धनुर्वेद वास्तव में प्राचीन सैन्य विज्ञान है। इसके अन्तर्गत शस्त्र और अस्त्र प्रचालन की विधियां उल्लेखित है। शस्त्र चलाते समय, शस्त्र हाथ में ही रहता है और अस्त्र दूरी पर जाकर भी वार कर सकता है। वैदिक काल के अस्त्र शस्त्रों में खड्ग, शूल, धनुष-बाण, चक्र, गदा, प्रक्षेपास्त्र और पाश प्रमुख है। इसके अलावा सैन्य संचालन और व्यूह रचना की शिक्षा भी धनुर्वेद में दी गई है। विभिन्न परिस्थितियों में सेना का संचालन एक सेनापति को कैसे करना है इसका विस्तृत वर्णन इसमें दिया गया है। समय, काल, परिस्थितियों और शत्रु की शक्ति के अनुसार चक्रव्यूह की रचना करना भी बताया गया है। सेना के चार अंग होते थे। ये चार अंग स्य, गज, अश्व, और पदाति होते थे। इन चारों के होने पर सेना चतुरंगिणी सेना कहलाती थी। इसके अलावा युद्ध संबंधी नीतियों और नियमों की जानकारी भी धनुर्वेद में वर्णित है। सैन्य शिक्षा के आचार्यों में आचार्य द्रोण एवं परशुराम का नाम प्रसिद्ध हैं। यजुर्वेद में ज्योतिष संबंधी अनेक तथ्यों का विवरण मिलता हैं। इसमें फलित का विकास हुआ एवं फलित ज्योतिष का एक मुख्य भाग बना। इसमें ऋग्वेद के बाद तेरह नवीन कारिकाएँ जुड़ी जिनमें ज्योतिष फलकथन के महत्वपूर्ण सिद्धांत सम्मिलित थें। इसमें गणित के सूत्रों को भी विस्तारित किया गया।
(3) सामवेद
इस वेद में सभी प्रकार के मन्त्रों, ऋचाओं, सूक्तों के पठन की विधि का वर्णन है। मन्त्रों को छन्दों के अनुसार किसी रीति से गाया जाता है इसकी विस्त त जानकारी सामवेद में दी गई है। हर छन्द के गायन की अलग विधि है। मन्त्रों के वाचन-पाठन का समय भी निश्चित होता है। प्रातः, दोपहर और संध्याकालीन पूजा की ऋचांए अलग-अलग निर्धारित की गई है। इन तीनों समय की पूजा को त्रिकाल संध्या कहते है। आज भी अनेक ब्राह्मण विधिवत् त्रिकाल संध्या करते है। अलग-अलग समय पर की गई पूजा का प्रभाव भी अलग-अलग होता है। सामवेद में सारे कर्मकाण्डों की प्रक्रिया के बारे में बताया गया है। मनु य जीवन में पूजा-अर्चना, दैनिक क्रिया, नित्यकर्म, विशेष पूजा और हर प्रकार के कार्य को करने का तरीका समझाया गया है। सारे संस्कारों के विधि-विधान विस्तृत रूप से वर्णित है। सामवेद में आर्य संस्कृति की जीवन पद्धति को बताया गया है। वर्तमान समय में अनेक ब्राह्मण पूजा और अन्य सारे कर्मकाण्ड संपन्न करवाते है। ये पुरोहित कहलाते है।
सामवेद का उपवेद गंधर्ववेद कहलाता है। गंधर्ववेद में नृत्य और संगीत कलाओं का सम्पूर्ण वर्णन है। भारत में प्रचलित शास्त्रीय नृत्यों की गंगोत्री गंधर्ववेद है। जिस प्रकार सामवेद के मंत्रों के गायन का समय निश्चित है उसी प्रकार संगीत के राग रागिनियों का गायन समय भी निर्धारित है। गंधर्ववेद में गायन और वादन की सम्पूर्ण जानकारी है। वाद्यों के प्रकार और उनकी वादन विधि का उल्लेख किया गया है। नृत्य के भावों और मुद्राओं का विशद् वर्णन गंधर्ववेद में मिलता है। इन विधाओं में पारंगत व्यक्ति गंधर्व कहलाते है। इनकी प्रतिष्ठा सामान्य जन से अधिक थी।
इसी के अंतर्गत नाट्यशास्त्र भी आता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव ने नाट्यशास्त्र की शिक्षा भरतमुनि को दी और भरतमुनि ने इसे नाट्यशास्त्र ग्रंथ में संकलित किया। नाट्यशास्त्र में नाटक और रंगमंच के बारे में वर्णन मिलता है। इसमें मंचों के प्रकार, अभिनेता, परदे, नेपथ्य, दृश्य, ध्वनि, नाट्य संगीत और नाटकों के प्रकार आदि को विस्तृत रूप से समझाया गया है। साहित्य के अंलकारों और रसशास्त्र के सिद्धान्त नाट्यशास्त्र में संकलित हैं। आज भी रंगकर्म के क्षेत्र में इस ग्रंथ के सिद्धान्तों को मान्य किया जाता है। सामवेद के भी कुछ भागों में ज्योतिष के कई महत्वपूर्ण सुत्र मिलते हैं।
(4) अथर्ववेद
अथर्ववेद में जीवन और समाज के नियमों का संकलन है। यह एक प्रकार से नीतिशास्त्र है। प्रत्येक व्यक्ति के धर्म और न्याय सम्मत कर्म क्या हैं और अनैतिकता क्या है यही अथर्ववेद में विस्तार से दिया गया है। राजा और प्रजा के कार्य क्षेत्र और कर्तव्यों का उल्लेख है। एक शासक के अपनी प्रजा के प्रति क्या दायित्व होते हैं, उसे अपनी
प्रजा के सुख, समृद्धि, रक्षा के लिए क्या करना चाहिए। यह सब वर्णन अथर्ववेद में दिया गया है। एक नागरिक के अपने परिवार और राष्ट्र के प्रति कर्तव्य और उत्तरदायित्व तया उसके अधिकार का वर्णन इस वेद में है। शासक और प्रजा के आपसी व्यवहार को भी बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है। एक व्यक्ति का पितृऋण, गुरूऋण और देवऋण क्या होता है और इन ऋणों से कैसे उऋण होना क्यों आवश्यक है, व्यक्ति की जीविका के कार्यो, कृषि, व्यापार, आयुधजीवन, सेवाकर्म किसे और किस रीति से करना है इसकी जानकारी अथर्ववेद में है। इस प्रकार अथर्ववेद में जीवन जीने की कला सिखाई गई है।
अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्य वेद है। स्थापत्य शब्द स्थापना से बना है। स्थापना का अर्थ है स्थिर करना या उचित जगह पर रखना। इस वेद में मुख्य रूप से भवन निर्माण, नगर नियोजन, प्रासाद, जलकुण्ड आदि की शास्त्रोक निर्माण विधियाँ दी गई हैं। इसी के अंतर्गत यान, मूर्तिकला और चित्रकला के बारे में सम्पूर्ण वर्णन है। बैठने और सोने के साधन अर्थात् फर्नीचर की निर्माण विधि भी इसी वेद मे दी गई है।
अथर्ववेद में ज्योतिष का सबसे अधिक एवं विस्तार स्वरूप मिलता है। इस वेद में ज्योतिष विद्या अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में प्रतिपादित की गई। इस वेद में ज्योतिष संबंधी करीब एक सौ बासठ कारिकायें मिलती है जिससे ज्योतिष एक संपूर्ण शास्त्र के रूप में प्रचलित हुआ। वैदांग ज्योतिष वैदिककाल के अंत तक अत्यंत विकसित हो चुका था। इस समय तक भारत में सप्ताह के सात दिनों का नामकरण और उनसे संबंद्ध ग्रहों का प्रचलन आदि हो चुका था।
*ज्योतिष शास्त्र के आधार स्तम्भ*
1.गणित (Astronomy)
2.फलित (Astrology)
1. गणित :-
ज्योतिष का गणित भाग पूर्ण रूप से ज्योमितिय सूत्रों पर आधारित है। गणित का मुख्य उपयोग जन्म-पत्रिका, पंचाग एवं वर्ष में ग्रहों की स्थिति की गणना, ग्रहों की चाल, ग्रहण, इत्यादि ज्ञान करना होता है। गणित के अंतर्गत गणित के सूत्र जैसे जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग इत्यादि करने से लेकर ज्योमितिय व त्रिकोणमिती तक के सूत्रों का उपयोग किया जाता है। इन विधियों द्वारा सौर मंडल में ग्रहों, तारों व उपग्रहों की स्थिति, उनकी चाल, उनकी परस्पर दूरी, पृथ्वी से उनकी दूरी, उनकी चाल की रीति, इत्यादि ज्ञात की जाती है। ज्योतिष शास्त्र के प्रारंभिक काल से ही गणितीय संकल्पनाएं प्रचलित थी। हमारे वैदिक ऋषियों और विद्वानों ने इस क्षेत्र में उत्तम कार्य किया था। ज्योतिष के विकास के साथ-साथ गणितीय विकास भी तीव्रता से हुआ। भारतीय इतिहास के स्वर्णकाल में गणित इतना विस्तृत आकार प्राप्त कर चुका था कि इसे सुविधानुसार तीन भेदों में विभाजित किया गया है।
गणित के तीन भाग हैं:-
2 फलित ज्योतिष
फलित का अर्थ हैं फल से संबंधित। गणित द्वारा बनाये गये सिद्धांत, कुंड़ली, इत्यादि का फल जानना। ग्रहों की स्थिति, उनकी परस्पर दूरी, उनकी दृष्टि, इत्यादि का मनुष्य पर प्रभाव व उसका फल ग्रहों की स्थिति से उनके फल का अध्ययन व विवेचन करना ही फलित ज्योतिष का मुख्य कार्य है
फलित को निम्न पाँच भागों में बाँटा जा सकता है।
*ज्योतिष की उपयोगिता*
भारतीय संस्कृति बहुत विलक्षण हैं। इसमें प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत पूर्णतः वैज्ञानिक एवं लोक कल्याण के लिए हैं। मनुष्य का कल्याण सुगमता तथा शीघ्रता से हो यही इसका कर्तव्य था। ऋषि-मुनियों ने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक होने वाले सारे संस्कारों को प्रतिपादित किया है। यह सोलह संस्कार कहलाए। इसके अलावा एक आम आदमी को जीवन में करने वाले कर्तव्य को बड़े वैज्ञानिक ढंग से सुनियोजित किया। इन सबके पीछे उद्देश्य मनुष्य के कल्याण से था। शास्त्रों का अनुसरण करने से व उनके अनुसार जीवन पथ पर चलने से अंतःकरण शुद्ध होता है जिससे कल्याण होता है।
ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा जाता है। कोई भी शुभ कार्य करना, जैसे हवन, पूजन, विवाह, गृहप्रवेश, इत्यादि में ज्योतिष द्वारा मुहूर्त विचार किया जाता है। प्राचीनकाल में शिष्य गुरुकूल में रहकर चौसठ विद्याओं की शिक्षा प्राप्त करते थे। इन विद्याओं में एक ज्योतिष शास्त्र भी था। जीवन में कठिनाइयाँ व परेशानियों का कारण मनुष्य द्वारा किया गया प्रारब्ध कर्म हैं। अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थति के आने में मुल कारण प्रारब्ध है। प्रारब्ध अनुकूल हो तो जन्म पत्रिका में यह भी अनुकूल हो जाते हैं। और प्राख्ध प्रतिकूल हो तो वे सब भी प्रतिकूल हो जाते हैं। यही बात ज्योतिष शास्त्र के बारे में समझानी चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं है कि सब कुछ प्राब्ध पर छोड़कर बैठ जाएँ। मनुष्य का कर्त्तव्य शास्त्र के अनुसार जीवन यापन करने से है। मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार जो स्थिति मिले उसमें संतुष्ट रहना चाहिए। ज्योतिष का उपयोग अपने प्रारब्ध द्वारा उपजी परेशानियों एवं चिन्ताओं की कम करने से है।'करने' का क्षेत्र अलग है और 'होने' का क्षेत्र अलग है। हम व्यापार, नौकरी इत्यादि करते हैं। जिसमें लाभ या हानि होती हैं। करना हमारे हाथ में हैं और होना हमारे हाथ में नहीं। इसलिए हमें करने में सावधान और होने में प्रसन्न रहना चाहिए। कर्म करना हमारा कर्त्तव्य है और फल देना या मिलना उस परमात्मा के हाथ में है। शास्त्र के अनुसार हमें कर्तव्य करने चाहिए।
ज्योतिष विद्या द्वारा जन्म पत्रिका में स्थित दोषों की शांति करने से दोष की शांति कुछ हद तक तो हो जाती है किन्तु प्रारब्धजनित कष्ट तो भोगने ही पड़ते है। जिस प्रकार औषधि लेने पर कुपथ्यजन्य रोग तो मिट जाते हैं, पर प्रारब्धजन्य रोग नहीं मिटते है। वे तो प्रारब्ध का भोग पूरा होने पर ही मिटते हैं। परन्तु इस बात का ज्ञान होना कठिन है कि कौन-सा रोग कुपथ्यजन्य हैं और कौन सा प्रारब्धजन्य ? इसलिए मनुष्य का कर्तव्य बनता है कि रोग होने पर उसकी चिकित्सा करें, उसको मिटाने का उपाय करें। इसी तरह जन्म पत्रिका द्वारा जनित दोषों को दूर करना एवं उनकी शांति करवाना भी मनुष्य का कर्त्तव्य है।
ज्योतिष विद्या से मनुष्य अपने भूतकाल में घटी घटनाओं की पूर्व सूचना भी ज्योतिष विद्या में कर सकता है। यहां मनुष्य अपने कर्म को ज्योतिष विद्या के ज्ञान द्वारा अनुकूल कर सकता है। यदि भविष्य में विपदाएँ, हानि, इत्यादि हो तो मनुष्यों को बड़ी सावधानी से कार्य करना चाहिए। जिस प्रकार बारिश का अंदेशा होने पर हम सावधानी के लिए छाता लेकर निकलते हैं। उसी प्रकार यदि भविष्य प्रतिकूल हो तो उस अनुसार निर्णय लेना व संचय रखना लाभदायक सिद्ध होगा। मनुष्य जीवन में अधिकाधिक सुख पाना चाहता है। यदि यह जानकारी पहले से प्राप्त हो जाये तो उसके अनुसार अपने मन, मस्तिष्क कर्म के प्रति उसका स्वभाव उपयुक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि किसी मनुष्य की जन्म-पत्रिका के अनुसार उसे साझेदारी से हानि हो सकती है। अब यदि इस जानकारी का उपयोग वह मनुष्य करेगा तो उसे सुख प्राप्त होगा या हानि से बचाव होगा। इस प्रकार ज्योतिष विद्या द्वारा दूर दृष्टि से मनुष्य अपने जीवन में होने वाली घटनाओं का पूर्व अवलोकन कर, अपने कर्म को उस अनुसार कर अत्यधिक लाभ प्राप्त कर सकता है।
This blog is written by Aalok Parrouha ji, a leading World’s Best Astrologer, Numerologist, Tarot Reader, and Palm Reader & Vastu Consultant in India. He has already served thousands of people in India and Abroad. He has written many blogs, if you want to read his blogs on Indian Vedic astrology, follow his blogs and visit the website on regular basis.
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